कन्याकुमारी से ‘भारत जोड़ो’ यात्रा लेकर निकले राहुल गांधी दिल्ली तक आते-आते तपस्वी बन गए। राजधानी की कडकड़ाती ठंड में जब सफेद टी-शर्ट पहने राहुल घूम रहे थे, तो कांग्रेसियों में वे तपस्वी और संत दिख रहे थे। राहुल ने 9 जनवरी को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी खुद को तपस्वी बताया.
4 साल पहले गुजरात और बाद में हुए राजस्थान विधानसभा चुनाव में राहुल ने खुद को जनेऊधारी ब्राह्मण कहा था। राहुल खुद को शिव भक्त भी कह चुके हैं। ऐसे में सियासी गलियारों में सवाल उठता है कि पंडित नेहरू की सेकें कांग्रेस के सबसे बड़े चेहरे को पहले जनेऊधारी और अब तपस्वी बनने की क्या जरूरत पड़ी।
(फोटो- पीटीआई)
‘तपस्वी’ बनने की वजह दर्शन या राजनीति? 3 पावर…
2013 के करीब 40 विधानसभा और 2 बजे के चुनाव में कांग्रेस संगठन हार गया और रणनीति लगातार बदलने लगी। इसी बदलाव के क्रम में कांग्रेस कभी नरम हिंदुत्व के रास्ते जाती है, तो कभी संविधान और कुछ मान्यताओं के रास्ते। कांग्रेस की ये दुर्भावना भी है और कमजोरी भी।
भारत जोड़ो यात्रा में राहुल के ‘तपस्वी’ रूप और सवालों के जवाब सुनकर इस बात की चर्चा तेज हो गई है कि क्या राहुल अब सिर्फ दर्शन और सिद्धांत की बात करेंगे या राजनीति भी करेंगे? खुद राहुल और कांग्रेस की रणनीतिकार आखिर ऐसा क्यों कर रहे हैं? आइए इसे 3 प्वॉइंट्स में समझते हैं…
1. एंटोनी कमेटी की रिपोर्ट के बाद चेहरे पर फोकस- 2014 में करारी हार के बाद सोनिया गांधी ने एक एंटोनी की अध्यक्षता में एक समिति बनाई। समिति ने हार की बड़ी वजह मुस्लिम तुष्टिकरण और चुनाव में संगठन के नदारद रहने को बताया।
कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंदू के मुद्दों को भी पार्टी के नेता उठाएं। इसके साथ ही सबसे बड़े चेहरे राहुल की छवि बदलने पर भी जोर दिया गया।
2017 में गुजरात चुनाव के वक्त कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व के रास्ते आगे भी देगी, लेकिन 2019 के चुनाव में हार के बाद इस पर चर्चा बंद हो गई। 2019 के बाद संजीवनी के आस-पास कांग्रेस अब फिर से राहुल के चेहरे पर फोकस कर रही है और तपस्वी के मामले में सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पर आगे बढ़ रही है।
2. जिन राज्यों में मुस्लिम ज्यादा, वहां के इलाकों में पार्टी का कब्जा- यूपी, बिहार, असम, केरल, पश्चिम बंगाल, जम्मू-कश्मीर और झारखंड में मुस्लिम आबादी अन्य राज्यों की तुलना में अधिक है। जनगणना 2011 के अनुसार उत्तर प्रदेश में 19.26 प्रतिशत, बिहार में 16.87 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल में 27.01 प्रतिशत, असम में 34.22 प्रतिशत, केरल में 26.56 प्रतिशत, जम्मू-कश्मीर में 68.31 प्रतिशत और झारखंड में 14 प्रतिशत मुस्लिम हैं।
इन राज्यों में अल्पसंख्यकों के क्षेत्रीय मतदाता मिलते हैं। मुस्लिम के मुद्दों पर स्थानीय स्तर पर नेताओं की मुखरता बड़ी वजह है। ऐसे में कांग्रेस अब अपनी रणनीति बदलने में जुट गई है।
3. 2023 में जिन 4 बड़े राज्यों में चुनाव, वहां हिंदुत्व बड़ा फैक्टर- इस साल कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। आसपास के राज्यों में 93 सीटें हैं। इसलिए इन चुनावों को 2024 का सेमीफाइनल भी कहा जा रहा है।
जनगणना 2011 के अनुसार मध्य प्रदेश में 90.8 प्रतिशत, राजस्थान में 88.49 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 93.25 प्रतिशत और कर्नाटक में 84 प्रतिशत हिंदू आबादी है। मध्य प्रदेश बीजेपी-जन संघ के लिए ऐसा पहला राज्य था, जहां 1977 में पार्टी ने सरकार बनाई थी।
(फोटो- गेटी)
कांग्रेस के सामने छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सरकार बचाने की चुनौती है, वहीं मध्य प्रदेश और कर्नाटक में वापसी पार्टी की कोशिशों में जुटी है।
संगठन पर चुप्पी साधे रखने में जुटे राहुल
भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी ब्रिक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे हैं, लेकिन संगठन से जुड़े हुए मौन साधक स्वीकार करते हैं। दरअसल, गांधी परिवार ने संगठन का कमान छोड़कर मोदी और संघ के खिलाफ मोर्चा खड़ा किया है। इसके पीछे की वजह से आगामी 2024 चुनाव है।
राहुल ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि एक चुनाव में जीतने के लिए काम नहीं कर रहे हैं, हम एक विचारधारा को हराने की लड़ाई लड़ रहे हैं। हालांकि, कांग्रेस में उनकी क्या भूमिका होगी, इसका फैसला मल्लिकार्जुन खरगे को करना है।
2019 में हारने के बाद सीडब्ल्यूसी के मैनेजर राहुल ने कहा था कि मेल उठाने में कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने उनका साथ नहीं दिया। राहुल इसी वजह से संगठन के कामकाज से दूर रहते हुए तय करने में जुटे हैं।
ग्रेजुएट सीन कैंप में भी दिखी थी सॉफ्ट हिंदुत्व की झलक
मई 2022 में कांग्रेस ने राजस्थान के मेकिंग में सेंसर कैंप लगाया था। इसमें विशेष के कांग्रेस के खाते बुलाए गए थे। समझदार में कांग्रेस को फिर से मजबूत करने के लिए कई प्रस्ताव पारित किए गए।
शिविर में सबसे चर्चा का विषय पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की तस्वीर वाला पोस्टर था, जिसे कांग्रेस की किसी कार्यक्रम में पहली बार डाला गया था। दरअसल, सोनिया गांधी की कमान संभालने से ही पूर्व पीएम नरसिम्हा राव अलग-अलग हो गए थे।
(फोटो- सोशल मीडिया)
2011 में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में गांधी परिवार के करीबी नेता मणिशंकर अय्यर ने कहा था कि बाबरी विध्वंस में राव की भूमिका के बाद पार्टी हाईकमान उनसे संबद्ध महसूस कर रही थी।
मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारु ने अपनी किताब ‘एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ में दावा किया कि कांग्रेस हाईकमान के निधन के बाद कांग्रेस हाईकमान उनके परिवार पर सरप्राइज उनके अंतिम संस्कार संबंध में संबंध है। इसकी वजह नरसिम्हा राव की सरकार में बाबरी मस्जिद का गिरना था.
फ्लॉप हो रहा है कांग्रेस की सॉफ्ट हिंदुत्व रणनीति
पहली बार नहीं है, जब कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व की वैश्विक राजनीति में बहुसंख्यकों को साधने में जुटी है। जनसंघ से प्रतिस्पर्धा करने के लिए कांग्रेस ने 1956 में बहुजन मानव समाज की स्थापना की थी। 1966 में इसी संगठन ने गौहत्या के खिलाफ कांग्रेस सरकार का विरोध किया।
1967 में इंदिरा गांधी और पुराने कांग्रेसी नेताओं के विवाद के बाद यह संगठन समाप्त हो गया। 1984 में राजीव गांधी की सरकार ने अयोध्या विवाद में खुलासा करने का निर्देश दिया था।
कांग्रेस के इस कदम को हिंदू को शासन के रूप में देखा गया। हालांकि, 1990-आते कांग्रेस में आते ही यह विवाद भारी पड़ गया। 1998 में सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने इस विवाद से दूरी बना ली।
2017 में कांग्रेस ने राहुल गांधी का गोत्र बताया फिर से इस पर अमल शुरू किया, लेकिन गुजरात में हार के बाद इस पर मौन साध ली। कांग्रेस अब फिर से इसी राह पर चल रही है। देखने वाली बात कैसे होगी कि हिंदुत्व की पिच पर कांग्रेसी बीजेपी के सामने खेलती है?