10 मार्च को एक हैरतअंगेज घटना घटी। इसमें ईरान और सऊदी अरब के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने अपने 7 साल की बेरुखी खत्म करने पर सहमति जताई है। दोनों देशों के सलाहकारों ने ये सहमति बीजिंग में चीनी स्टेट काउंसिलर वांग के पास रखी। सुरक्षा सलाहकार इस बात पर सहमति जताते हैं कि दोनों देशों के दूतावास दो महीने के अंत में खुलेंगे।
बता दें कि सात साल पहले दोनों देशों ने आपसी विवाद के बाद अपने राजनायिक संबंध तोड़ने के लिए थे। 2016 में सऊदी अरब में एक जाने-माने शिया धर्म गुरु को फांसी दी गई थी, तब रियाद स्थित सऊदी अरब दूतावास में ईरानी प्रदर्शनकारी घुस आए थे। ईरानी जामदानी में हमले भी किए गए थे। इस घटना के बाद सऊदी अरब ने ईरान से अपने रिश्ते तोड़ लिए थे।
ये भी ध्यान देने वाली बात है कि ईरान के शीर्ष सैन्य अधिकारी कुछ महीने पहले तक सऊदी अरब को रैकेट दे रहे थे। उनका कहना था कि सऊदी अरब अपने फ़ारसी भाषा के मीडिया आउटलेट्स को मयंक में करें, अगर वो ऐसा नहीं करता है तो इसका परिणाम खराब होगा। ईरान का कहना था कि फ़ारसी भाषा का मीडिया आउटलेट्स ईरान की सरकार के ख़िलाफ़ लिख रहा है।
इसके बाद सऊदी अरब ने ईरान की तरफ़ "हमलों के खतरे" का हवाला देते हुए अलर्ट का लेवल पूरे देश में बढ़ाया गया था। वहीं एक महीने बाद अब चीन ने दोनों देशों के बीच समझौते की घोषणा कर अपनी ताकतवर राजनीतिक शैली को पूरी दुनिया के सामने पेश कर दिया है। चीन ने ऐसा करके संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह क्षेत्रीय शांति की दिशा में एक रोल अदा करने का संदेश दिया है। >>
साल 2016 से दोनों देशों के बीच तनाव का माहौल बना हुआ है। 2015 में हज यात्रा के दौरान मक्काई भगदड़ में 139 ईरानी तीर्थयात्रियों की मौत हुई थी तब भी सऊदी अरब और ईरान में सामंथा हुआ था। उस समय ईरान ने सऊदी अरब सरकार से इनकार करने का आरोप लगाया था। ईरान ने इस मामले को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में ले जाने की भी बात कही थी। साल 2016 में सऊदी अरब में शिया धर्मगुरु निम्र अल-निम्र के साथ 47 लोगों को आतंकवाद के जेहाद पर चढ़ा दिया गया था। इस घटना के बाद तेहरान में सक्रिय प्रदर्शन सऊदी अरब के दूतावास में घुस गए थे। इसके बाद सऊदी अरब लगातार ये इल्जाम लगा रहा है कि हूती विद्रोही ईरान की मदद से उस पर हमले करते रहते हैं। बता दें कि 2019 में हुए हमलों में सऊदी अरब के तेल संयंत्रों को भारी नुकसान हुआ था और इससे सऊदी अरब का तेल उत्पादन डूब गया था। वहीं दूसरी तरफ ईरान ने इस हमले में शामिल होने की बात कही थी। इन हमलों से ये साफ होता है कि दोनों देश जिस तरह से व्यवहार करते हैं वो एक दूसरे पर गारंटी नहीं देते हैं। ऐसा भी नहीं है कि पिछले सात वर्षों में ईरान और सऊदी अरब के बीच समझौते की कोशिश नहीं हुई लेकिन पिछले शुक्रवार को दोनों देशों के दावों को काफी अहम माना जा रहा है।
अप्रैल 2021 में ईरान-सऊदी सुरक्षा वार्ता हुआ था। वियना में हुई इस वार्ता का मकसद दोनों देशों के संबंधों की खटास को दूर करना था। तब वाशिंगटन ने खाड़ी सहयोग परिषद के देशों से सऊदी अरब और ईरान के सुरक्षा मुद्दों पर अपनी वार्ता के दायरे में आने के लिए निमंत्रण को नामंजूर कर दिया था। इस बात पर सहमति जताते हुए कि वे दो महीने के भीतर अपने-अपने दूतावास पर कब्जा करने वाले हैं। आने वाले समय में वे व्यावसायिक और सुरक्षा सबंध को फिर से स्थापित करेंगे। अमेरिका ने भी इस घटना पर जाहिर खुशी की है। साथ ही व्हाइट हाउस की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के प्रवक्ता जॉन किर्बी ने यह भी टिप्पणी की कि बाइडन प्रशासन इस क्षेत्र में तनाव के लिए ऐसा कोई भी सबसे पहले समर्थन करता है।"जॉन किर्बी ने ये भी कहा कि, " ये अभी दृश्य बाकी है कि इस समझौते के लिए कौन से जरूरी कदम मंजूर करेंगे।"
सऊदी अरब और ईरान के बीच चीन की एंट्री के मायने
सऊदी अरब और ईरान के बीच ये समझौता काफी दिलचस्प माना जा रहा है। इसकी वजह से दोनों देशों के बीच चीन की एंट्री होती है और चीन के टॉप मैटिक वांग यी की नजर में आना और दिलचस्प होता है। इसे मध्य पूर्व में चीन की बढ़ती भागीदारी के रूप में देखा जा रहा है। दो खाड़ी देशों के बीच इस तरह की अस्पष्टता ये भी संकेत दे रही है कि खाड़ी देश अब अपनी सुरक्षा की सुंदरता के लिए सिर्फ अमेरिका पर स्थायी रूप से रह नहीं सकता है।
इस क्षेत्र के देश कहीं ना कहीं इस बात से सीख चुके हैं कि स्प्रिंग अरब के दौरान किस तरह अमेरिका ने मिस्र की होस्नी मुबारक सरकार को हाल पर छोड़ दिया था। अरब देशों ने ये भी देखा है कि रूस ने किस तरह सीरिया की असद सरकार का साथ दिया, सीरिया की असद सरकार के मानवाधिकारों के खिलाफ उल्लंघन के गंभीर मामले होने के बावजूद रूस ने सीरिया सरकार का फैसला लिया था।
पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जब अमेरिकी विदेश नीति में पूर्वी क्षेत्र और एशिया-पैसिफिक क्षेत्र को तवज्जो देने का फैसला लिया था तो अरब देशों को ये लगा कि वह अपनी सुरक्षा की सुंदरता के लिए अमेरिका पर और विश्वास नहीं कर सकते हैं। लेकिन ये भी सच है कि अमेरिका भी सऊदी अरब की सुरक्षा की गारंटी देने वाला देश है। लेकिन अब अरब देश अपने राजनयिक संबंधों को विस्तार देने की कोशिश कर रहे हैं।
क्या इसके बाद पाकिस्तान चीन के और करीब आया
बात मुस्लिम देशों की हो तो पाकिस्तान का जिक्र लाजिमी हो जाता है। सऊदी अरब और ईरान के बीच समझौते के बाद पाकिस्तान ने चीन की चिंता की। पाकिस्तान ने कहा कि क्षेत्र में शांति स्थापित करने के लिए पाकिस्तान का योगदान रहेगा। ऐसे में ये सवाल उठता है कि क्या पाकिस्तान-चीन की दोस्ती भारत के लिए चुनौती बनेगी। सही नहीं होगा कि चीन के लिए इस्लामिक देशों की अहमियत हमेशा बनी रहे।
वहीं, चीन अगर ईरान और पूल अरब के करीब आता है तो पाकिस्तान का महत्व चीन के लिए कम भी हो सकता है। चीन पहले खाड़ी देशों जैसे तुर्की, मलेशिया और ईरान के साथ आने की कोशिश कर रहा है। ऐसे में अगर ईरान और सऊदी अरब के बीच का तनाव भी खत्म हो जाता है तो पाकिस्तान की भूमिका आपकी कम हो जाएगी।
दोनों देशों के बीच चीन की भूमिका से भारत को खतरा?
ईरान और सऊदी अरब के बुरेते संबंधों के बारे में सूचनाओं का ये एहसास है कि यह कुछ अरसे तक देखने और समझने के बाद ही पता चल जाता है कि दोनों के बीच संबंधों पर कोई ध्यान नहीं है। भारत को इस विषय पर डाक टिकट दिया जाना चाहिए कि चीन ने लाभ कैसे उठाया। भारद्वाज ने बीबीसी को बताया कि अरब देशों में चीन की बढ़ती भारत की भूमिका के लिए ध्यान देने वाला विषय है। उन्होंने कहा कि भारत के मध्य एशियाई देशों में अपना संबंध मजबूत करने के लिए चाबहार भी विकसित हो रहा है। वहीं ईरान और सऊदी अरब दोनों ही भारत को एक मित्र राष्ट्र की नजर से देखते हैं।
संजय के. भारद्वाज ने कहा कि सऊदी अरब और ईरान को लेकर चीन और भारत दोनों के अपने रणनीतिक, आर्थिक और राजनीतिक हित हैं। खाड़ी देशों की सुरक्षा को लेकर भारत को सीधी चुनौती नहीं मिलती है। चीन अगर मध्य पूर्व में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है तो यकीन ही विद्युत क्षेत्र में साझेदारी लेकिन शेष निवेश के मौकों में दोनों देशों के बीच कोई कमी नहीं आनी चाहिए।
ईरान-सऊदी मसले पर भारत के लिए कहां चुनौती है
भारत और खाड़ी देश के बीच भारत के राजनीतिक अनुपात भी मायने रखते हैं। चीन के साथ व्यापार का एक बेहतरीन उदाहरण चाइना बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव है। लेकिन चीन के संदर्भ में भारत के पास सबसे बड़ी पूंजी नहीं है। वहीं चीन अमेरिका को नाराज कर सकता है क्योंकि चीन और अमेरिका के संबंध पहले से अच्छे नहीं हैं। लेकिन भारत के लिए अमेरिका के साथ संबंध बनाना आसान नहीं है। ऐसे में दोनों देशों के बीच अमेरिका और इस्राइल के हित भारत के लिए काफी पेचीदा हैं। ऐसे में दोनों हित से जुड़े हुए हैं। यानी इस समय में भारत को अपनी विदेश नीति को बेहद संभाल कर चलने की जरूरत है।
दूसरी तरफ भारत चीन की तरह कोई भी फैसला तुंरत नहीं ले सकता है इसके पीछे की वजह से भारत का एक लोकतांत्रिक देश होना है। यानी भारत के लिए कोई भी फ़ैसला लागू करने में देरी की संभावना है। इसका फायदा चीन आसानी से उठा रहा है। इसका ताजा उदाहरण सऊदी अरब और ईरान के बीच हुई बातचीत और उनके संबंधों में सुधार में चीन की नीति है।