- इकबाल अहमद
- बीबीसी संवाददाता
रोज़गार समझौते तय – मनरेगा में तय बजट कटौती और इसकी मज़दूरी के भुगतान में देरी के खिलाफ दिल्ली के जंतर-मंतर में पिछले कुछ दिनों से धरना जारी है।
जाने-माने अर्थशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता ज्यां द्रेज़ ने पिछले दिनों धरना दे रहे मछुआरे और सामाजिक मामले के समर्थन में प्रेस ब्रीफ़िंग की और केंद्र की मोदी सरकार पर मनरेगा को ख़तरे में डालने का आरोप लगाया।
बीबीसी से एक विशेष बातचीत में ज्यां द्रेज़ ने कहा कि केंद्र सरकार मनरेगा पर ‘त्रिशूल’ से वार कर रही है। जिस तरह त्रिशूल के तीन स्पॉट होते हैं, उसी तरह ये सरकार इसे तीन तरह से ख़तरे में डाल रही है।
उन्होंने कहा कि एक तो सरकार ने इसका बजट घटाकर 60 हजार करोड़ रुपए कर दिया। दूसरा, वो इसमें हाज़िरी लगाने के लिए एक अनिवार्य डिजिटल वेबसाइट का उपयोग कर रहा है। जो उनके अनुसार ग्रामीण इलाक़ों में कभी काम करता है, कभी नहीं। इससे सगे-सम्बंधियों को उनकी सहकर्मी मिलने में देरी होती है।
इसके साथ ही सरकार ने दर्जी से जीविका देने के लिए आधार को अनिवार्य बना दिया है। इससे सहकर्मी के भुगतान में लक्षण उत्पन्न हो गए हैं। पहले बैंक अकाउंट से नौकरीपेशा मिल गया था। लेकिन कर्मचारियों के लिए नई प्रणाली जटिल साबित हो रही है और उनके वेतन भुगतान में देरी हो रही है।
पिछले सात दिसंबर को ग्रामीण विकास राज्य मंत्री साध्वी निरंजन ने एक लिखित जवाब में कहा था कि ‘साथियों’ को एनएमएमएस वेबसाइट के माध्यम से जानकारी दर्ज करने की जिम्मेदारी दर्ज करने के लिए बढ़ाया जा रहा है और मंत्रालय प्रदान कर रहा है है।
उन्होंने उस समय यह भी कहा था कि ऐप को सुचारु रूप से संशोधित करने के लिए राज्यों/केंद्रों द्वारा अवैध प्रदेशों को प्रशिक्षण दिया जाएगा।
मनरेगा की दस ख़ास बातें
- मनरेगा के हस्ताक्षर के अधिकार का क़ानून अगस्त, 2005 में पारित हुआ था।
- इस अधिनियम को पहली बार सन 1991 में नरसिम्हा राव की सरकार में प्रस्तावित किया गया था।
- मनरेगा को पहले भारत के 625 ज़िलों में लागू किया गया था।
- वर्ष 2008 में भारत के सभी ज़िलों में लागू कर दिया गया।
- इसके अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में प्रत्येक परिवार के एक शख़्स को कम से कम 100 दिन तक रोज़गार देने का प्रावधान है।
- मनरेगा योजना का मसौदा ग्राम पंचायत के अधीन नहीं है।
- रोज़गार चाहने वाले पांच किलोमीटर के दायरे में काम देते हैं और न्यूनतम कर्मचारी का भुगतान किया जाता है।
- आवेदन के 15 दिनों के अंदर काम नहीं मिलने पर समझौते को बेरोज़गारी बोका दिया जाने का प्रावधान भी है।
- सेंटर सरकार की ओर से जारी आंकड़े पिछले दो दशकों के अनुसार 2023 तक देश भर में 15,06,76,709 प्रवासी मजदूर हैं। जिन्हें यह काम मिल रहा है।
- वहीं इसमें कुल पंजीकृत मजदूरों की संख्या 29,72,36,647 है।
बीबीसी ने जब उनसे सवाल किया कि सरकार मान रही है कि नए सिस्टम में शुरुआती दिक्कतें हैं और इसे सुधार लिया जाएगा तो ड्रेज़ ने कहा कि ”सरकार हर बार नई ग्रेडिंग है। पहले नक़द भाईचारी दी जाती थी। इसके बाद डाक टिकटों के ज़ेर होने लगे।”
” फिर ईएमएफ और एनईएमएस आया। दो साल पहले तो कास्ट बेस्ड जॉब सिस्टम शुरू किया गया। क्षेत्र और जनजातियों को अलग से अपना अधिकार जताने जा रहे हैं। और सरकार अब रिकग्निशन सिस्टम की बात कर रही है।”
”तो इस तरह हर बार एप्लिकेशन का नया सिस्टम लाकर कहता है नए सिस्टम में सुधार करेगा। जब तक नए सिस्टम में सुधार की बात सरकार करती है तब तक कोई नया सिस्टम ले जाता है। पिछले 12 साल से यही हो रहा है.”
i सक्रिय नहीं
ज्यों द्रेज का कहना है कि इस मुद्दे पर विपक्षी पार्टियां भी खास सक्रिय नहीं हैं।
उनके मुताबिक कुछ दिन पहले उन लोगों ने कई नेताओं से मिलकर इन मुद्दों को जानकारी दी और उनसे मदद की अपील की।
उनके अनुसार विपक्षियों ने उनकी बात सुनी है और समर्थन में भी हैं लेकिन वो कितना सक्रिय होंगे यह देखा होगा।
मनरेगा बजट में शॉट?
ज्यां द्रेज़ सहित कई सामाजिक पाठ्यक्रम का आरोप है कि सरकार ने मनरेगा का बजट घटा दिया है।
हालांकि सरकार इन झूठों को खारिज कर देती है।
केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मल निगम ने बजट के बाद अपने मीडिया साक्षात्कार में कहा था, “मनरेगा मांग आधारित योजना है। मांग के आधार पर बजट बढ़ाना संभव है। राज्य से अगर और मांगे गए तो हम संसद से अधिसूचना मांग सकते हैं। ”
ग्रामीण विकास राज्य मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते ने भी बीबीसी से बातचीत में यही कहा था कि मांग बढ़ने पर बजट बढ़ाया जाएगा।
पिछले साल के बजट के दौरान मनरेगा के लिए 73 हजार करोड़ रुपये दिए गए थे, जो बाद में 89,400 करोड़ रुपये के हिसाब से किए गए।
और आख़िरी में सरकार ने मनरेगा पर पिछले साल 98,468 करोड़ रुपये ख़र्च किए.
जब ज्या द्रेज़ से पूछा गया कि आप सरकार की इस बात से सहमत क्यों नहीं हैं, तो उनका कहना था, “98 करोड़ ख़र्च करने के बावजूद पिछले साल 10-15 हज़ार करोड़ रुपए कम पड़ गए।”
उनका कहना था कि मनरेगा क़ानून के तहत राष्ट्रीय रोज़गार फ़ंड का प्रावधान था. उसकी सोच यह थी कि एक फंड रहे जिसमें हमेशा इतना पैसा रहा है कि जो भी मांग करता है उसका भुगतान हो जाता है इसमें कोई देरी नहीं हो सकती है। लेकिन सरकार ने इसे बजट आधारित बना दिया है।
जीन द्रेज़ ने कहा कि ”सरकार मनरेगा में शक पर निगाह रखता है। लेकिन ये पर्याप्त नहीं होता है। शुरुआत में प्रावधान बाद में कम होता है। लेकिन तब तक नौकरों के भुगतान में देरी हो जाती है, बकाया बढ़ जाता है।”
”इस बकाये को फिर अगले साल के लिए टाल दिया जाता है। यानी पहले कम प्रावधान, बंधन में देरी और बकाया होते रहना। इससे ये एक दुष्चक्र बन जाता है.”
सहकर्मियों से जुड़े आंकड़े
यूपीए-2 से ही मनरेगा गिरफ्तार होने लगा
2005 में शुरू हुए मनरेगा कार्यक्रम की अब तक जब ड्रेज़ से यात्रा के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि ”इसका उद्देश्य काफ़ी अच्छा रहा है। यूरोप और अमेरिका में इसकी चर्चा सफल रही है। इस क़ानून में घाटे के विकेंद्रीकरण की बात थी, लेकिन अब इसे केंद्र अपने कब्जे में लेना चाहता है।”
हालांकि इसमें टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल यूपीए-2 के राज में शुरू हो गया था, लेकिन अब इसका बहुत ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है और इससे ये जटिलता बन रही है। लाचारा अपने मकसद से दूर होता जा रहा है। जबकि सरकार एक तरह से टेक्नोलॉजी के भ्रमजाल में फंस गई है। उससे लगता है कि इससे सब कुछ सूझ सकता है लेकिन बहुत अधिक तकनीक के उपयोग से जटलिता ही पैदा हो रही है। “
बजट राशि को कम करने के लिए सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में चयन करें
ज्यां ड्रेज का कहना है कि मनरेगा के साथ-साथ कई दूसरी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के बजट में भी कमी हो रही है। सरकार का तर्क है कि बजट घटने के लिए सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में चयन किया जा रहा है।
जब जीन ड्रेज़ से पूछा गया कि आख़िरी सरकार के इस तर्क में ग़लत क्या है, तो उनका कहना था, “सरकार कहती है कि उद्योग में वृद्धि हो रही है। सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि कर्मचारी नहीं बढ़ रहे हैं। सामाजिक सुरक्षा योजनाओं पर ख़र्च नहीं बढ़ रहा है तो फिर आर्थिक विकास का अधिकार क्या है। सबसे गरीब लोगों के लिए कुछ पैसे क्यों नहीं दिए जा रहे हैं। कई देश ऐसा करते हैं तो भारत क्यों नहीं कर सकता है।”
अगर सरकार योजनाओं में कटौती कर रही है तो फिर इसके बारे में क्यों नहीं सोचती है, इसके जवाब में ज्या द्रेज ने कहा कि सभी राजनीतिक दलों को डराया जा रहा है। अगर विपक्षी पार्टी मनरेगा के मामले में ज्यादा साउंड उठाएँगी तो उन ख़तरा है कि उनके खिलाफ जांच हो सकती है, उन पर सीबीआई, आईटी या ईडी की रेड हो सकती है।
लेकिन जब उनसे पूछा गया कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी जब पूरे देश में भारत जोड़ो यात्रा कर सकते हैं तो फिर मनरेगा मजदूरों के पक्ष में वो क्यों नहीं सड़क पर आ सकते हैं? इस सवाल पर ज्यां द्रेज ने कहा कि कुछ दिनों पहले जब सभी के नेताओं के साथ उनकी बैठक हुई थी तो लालू प्रसाद की पार्टी आर जुनी के एक प्रवक्ता ने कहा कि “हम लोग मरेंगे जैसे मुद्दे उठाएंगे तो पता नहीं हम लोगों का क्या होगा?”
आर जुनी के ही रघुवंश प्रसाद सिंह ने यूपीए-1 में जुड़ाव ग्रामीण विकास मंत्री मनरेगा योजना की शुरुआत की थी।
पिछले कुछ वर्षों में बीजेपी ने सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के बल पर अपने मतदाताओं की एक बड़ी फ़ौज तैयार कर ली है और लगभग सभी राजनीतिक आवरणों को महसूस किया है कि पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी की जीत में इस लाभार्थी वर्ग का बहुत बड़ा योगदान था।
ज्याँ द्रेज़ से पूछा गया कि अगर मछुआरे और ग़रीबों के खिलाफ काम कर रहे हैं तो फिर वो चुनाव कैसे जीत रहे हैं, इसके जवाब में जायां द्रेज़ कहते हैं, “जनता को सुलाया गया है। लोकतंत्र का विनाश हो रहा है और इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हो रही है।”
उन्होंने कहा कि यह विरोधी पूर्वाग्रह की विफलता है और सत्ताधारी पार्टी की दावेदारी है। लेकिन उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि सरकार की कई योजनाओं से आम आदमी को कई लाभ भी मिले।
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